चाैंडा (चामुंडा) देवी मंदिर, देवीकोठी, चम्बा: देवी कोठी (जिसे पहले देवी-री-कोठी कहा जाता था) का चामुण्डा देवी मंदिर, चम्बा के उत्तर में, मध्ययुगीन काल का एक महत्वपूर्ण काष्ठ मंदिर है। चम्बा से 130 किलोमीटर दूर, उत्तर की ओर देवीकोठी, भूतपूर्व चम्बा राज्य के महत्वपूर्ण परगनों में से एक है। मुख्य द्वार के बगल में काष्ठ पटल पर टांकरी में खुदे लेख के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण चम्बा के राजा उमेद सिंह (1748-1764) ने 1754 ईस्वी में करवाया था। परिसर में प्रमुख मंदिर चामुण्डा देवी को समर्पित है जिसे स्थानीय लोग चाैंडा भगवती कहते हैं। यह एक बहुत परिष्कृत संरचना है जो कि अधिकतर लकड़ी और स्लेट की छत से बनी हुई है। इस मंदिर की काष्ठकला, कुछ पौराणिक चरित्रों का प्रतिनिधित्व करते हुए, उनकी साहसिक व दबंग मनुष्य आकृतियां, ध्यान आकृष्ट करने योग्य हैं। मंदिर के अग्रशिखर भाग पर, पुरूष संगीतकारों व नर्तकियों, जो की मध्ययुगीन परिधान धारण किए हुए हैं, केन्द्रीय स्तम्भ पर विभिन्न मुद्राओं में देवी-देवताओं की आकृतियां बनी हुई हैं। गर्भगृह में महिषासुरमर्दिनी की पीतल की प्रतिमा हैं।
कमलाह किला , सरकाघाट, मंडी प्राचीन समय में भूतपूर्व मण्डी राज्य में 360 किले थे जिसमें से अब केवल 10 ही अस्तित्व में हैं और शेष मिट चुके हैं। इस किले का निर्माण मण्डी राज्य के राजा हरी सैन ने 1625-30 ईस्वी में करवाया था और उसके पुत्र राजा सूरज सैन ने इसकी किलेबंदी को सुदृढ़ करवाया था। एक अन्य किवदन्ती के अनुसार विख्यात संत कमलाहिया बाबा ने राजा सूरज सैन को स्वप्न में दर्शन दिए थे और इस अजेय स्थान पर किला तथा मंदिर निर्मित करने को आदिष्ट किया था। राजा ने संत के आदेशों की पालना करते हुए, इस दुर्गम पहाड़ी पर किले का निर्माण करवाया था। इसलिए संत के नाम पर ही इस किले का नाम कमलाह किला पड़ा। मण्डी और कांगड़ा की सीमा पर सिंकदर धार की नुकीली चोटी पर इस किले के 6 विशिष्ट उपकिलेे हैं जो कि चारों ओर से बड़ी दूरी से सुस्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। तीन तरफ से इसकी ढांक एक दम लम्बवत (सीधी) है। छह विशिष्ट किले यानि कमलाह,चौकी, चबारा, पदमपुर, शमशेरपुर, नरसिंहपुर हैं। यद्यपि अनंतपुर, दो ओर से अभेद्य है और तीसरी ओर से भी ऐसा है, जहां से 40 सीढ़ीयां चढ़ कर, इसके प्रवेशद्वार तक पहुंचा जा सकता है, अगर पदमपुर पर कब्जा रहे तो फिर भी पूर्वी ओर से दुश्मन कब्जा कर सकता है। कमलाह किले में पानी का अपना कोई स्रोत नहीं है और पानी की आपूर्ति, काफी नीचे एक स्थान के स्रोत से की जाती है। लेकिन पहाड़ी किलों की भांति, इस किले में  भी उत्कृष्ट टैंक हैं जिनमें आसानी सेे इस छोटे किले  के लिए, कई महीनों तक की आपूर्ति के लिए पर्याप्त जल संग्रहीत किया जा सकता है। सूरजसैन से ईश्वरी सैन के राज्यकाल तक कमलाह, मण्डी राज्य की धन-सम्पत्ति का कोषागार रहा है और राज्य की स्वतंत्रता, प्रायः इन मुख्य गढ़ों पर निर्भर थी, जिसमें सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियां रहती थी। इस किले ने कई बुरी घटनाओं का सामना किया है। 24 अक्तूबर, 1846 को ब्रिटिश सरकार के साथ एक संधि पर हस्ताक्षर हुए थे और उसके बाद उन्नीसवीं शताब्दी में इस किले को ध्वस्त कर दिया गया। 
पराशर मंदिर, मंडी झील के तट पर अवस्थित इस मंदिर में, सदियों पुराना, काष्ठ निर्मित भव्य और बुलंद, पराशर ऋषि मंदिर, झील के किनारे स्थित है। यह बहु-स्तरीय पिरामिडीकल (हंसाकार), आश्चर्य से भरपूर, तनूकृत अत्याधिक रूचिकर व महत्वपूर्ण मंदिर है, जिसने हिमालयीय क्षेत्र के असंख्य मंदिरों को आद्य स्वरूप प्रदान किया है। यह मंदिर, राजा बाणसैन (1301-1346 ईस्वी), जो कि तात्कालीन मण्डी राज्य के सबसे पुराने शासकों में से एक था, ने 1340 ईस्वी में निर्मित करवाया था। मंदिर को  आयताकार गर्भगृह के चारों ओर चतुर्भुज के रूप में विन्यासित किया गया है जिसे कि लकड़ी व पत्थर की दीवारों से परिवृत किया गया है। समृद्ध रूप से लकड़ी की नक्काशी से अलंकृत, एक भीत का द्वार इसके गर्भगृह में प्रवेश प्रदान करता है। गर्भगृह के चारों ओर एक मीटर चौड़ाई के प्रदक्षिणा पथ के बाहर एक अन्य चारदीवारी है। 

महादेव भुवनेश्वर मंदिर, राजनगर, चंबा चम्बा-तीसा सड़क पर चम्बा से 13 किलोमीटर आगे एक सम्पर्क मार्ग से  इस मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। यह मंदिर एकमात्र ऐसा स्मारक है जो काश्मीरी शैल मंदिर स्थापत्य कला की कुछ विशेषताओं को दर्शाता है। कहा जाता है कि राजनगर को पहले नड के नाम से जाना जाता था परंतु चम्बा के राजा उमेद सिंह (1748-1764 ईस्वी) ने 1755 ईस्वी में, उनके पुत्र राज सिंह (1764-1794 ईस्वी) जो कि इसी स्थान पर पैदा हुआ था, के नाम पर यहां का नाम बदलकर राजनगर रख दिया था। उमेद सिंह को इस अवसर पर, इस मंदिर के नवीकरण के लिए भी जाना जाता है। राजनगर स्थित इस मंदिर की कुछ काश्मीरी विशेषताएं हैं क्योंकि शायद इसे काश्मीरी शिल्पकारों ने बनाया हो या ऐसे स्थानीय शिल्पकारों ने, जिन्होंने कश्मीर में इसका प्रशिक्षण प्राप्त किया होगा। बड़े आले, सीधी सीमांकन रेखाओं सहित द्वि-सतही पिरामिडीकल छत, इत्यादि इसकी काश्मीरी पहचान की विशेषताऐं हैं। इसके अतिरिक्त स्तम्भों व अन्य स्थानों पर की गई नक्काशी की शैली स्पष्ट रूप से मुस्लिम-काश्मीरी प्रभाव को दर्शाती हैं जैसे कि पुच्छल, कोणीय मोल्डिंग, इत्यादि। इसके अतिरिक्त परिसर में दो और लघु मंदिर हैं। यह लघु मंदिर गणेश व अहोणी के नाम से विख्यात हैं। गणेश को समर्पित मंदिर की पहचान तर्कसंगत है क्योंकि इसके भीतर गणेश की प्रतिमा स्थापित है परंतु दूसरे मंदिर के बारे में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इसके भीतर कोई भी प्रतिमा नहीं है।  

मगरू महदेव मंदिर,छतरी, थुनाग, मंडी छतरी गांव का मगरू महादेव मंदिर नामक भव्य स्मारक अपनी अदभुत  काष्ठकला के लिए विख्यात है। यह गांव, करसोग से 50 किलोमीटर तथा शिमला से 160 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का स्थापत्य पैगोडा व मण्डप शैली का मिश्रण है। इसका गर्भगृह पूर्ण वर्गाकार न हो कर, बदगुनिया (एक ऐसा वर्ग या आयत जिसके कोण 90 डिग्री में न हों) है।  गर्भगृह की दीवारें काठकुणी चिनाई से निर्मित हैं। इस भाग के ऊपर तीन-छत्ती पैगोडा छत है। गर्भगृह के चारों ओर अ-समान चौड़ाई के दो प्रदक्षिणा पथ हैं। गृहशिखर (Gabled) छत भाग, मण्डप व दोनों प्रदक्षिणा पथों को ढकता है। पैगोडा का शिखर वाला भाग, शंकुकार है और उसे लकड़ी के तख्तों की चार तहों, जिन पर समतल जस्ती लोहे की चादर लगी हैं, से ढका गया है। मध्य-छत्त को लकड़ी के तख्तों की तीन तहों और ऊपर से स्लेट लगा कर ढका गया है। सबसे निचली छत को, जो कि अग्रभाग पर जाकर समाप्त होती है, को लकड़ी के तख्तों की दो तहों के उपर स्लेटों से ढका गया है। इस मंदिर के सबसे मनभावन मण्डप भाग में बारीक एवं सुशोभित ढंग से की गई लकड़ी की नक्काशी है। मण्डप में लकड़ी के उघड़े हुए हर ईंच भाग को बारीकी से नक्काशीकृत किया हुआ है, केवल एक आकृति ही नहीं जो स्थिर या जमी हुई हो, मानवरूप या पशुरूप हो, गतिविधि से भरी हुई हैं।  यहां तक की सर्प जो जिगजैग बनावट के साथ, तेज लहरीली गति से चलते हुए प्रतीत होते हैं वैसे ही हाथी व घोड़े भी अति उत्साहित हैं। काष्ठशिल्पी ने भारतीय काव्यों, रामायण व महाभारत के असंख्य प्रसंगों व विषय-क्षेत्रों को सफलतापूर्वक उकेरा है। उसने युद्ध सम्बंधी विषयों को विशेषकर रूचिकर रूप से प्रस्तुत किया है। यह बहुत ही सशक्त व लुभावने हैं। मण्डप की छत को बहुत प्रवीणता से गुम्बदाकार बनाया गया है। गुम्बद के रिम में खुदी नृत्यरत मानव आकृतियां व उससे अगली पट्ठी में लताओं और पुष्पों की अत्युत्तम नक्काशी की गई है।

राधा कृष्ण मंदिर, डडासिबा, कांगड़ा राजा राम सिंह व उनकी प्रजा कृष्ण भक्त थे। कहा जाता है कि वे तीर्थ यात्रा के लिए मथुरा व वृंदावन जाते थे। किवदंती  के अनुसार राम सिंह ने अपनी प्रजा को सुझाव दिया कि यहीं डाडासीबा में कृष्ण मंदिर बना दिया जाए ताकि उन्हें मथुरा-वृंदावन की लम्बी यात्रा न करनी पड़े। तद्नुसार उन्होंने वन  में एक स्थल का चयन किया और वहां पर मंदिर का निर्माण करवाया। कहा जाता है कि उनके राज्य की तेईस ईकाइयां, जिन्हें कि टीके कहा जाता था, निर्माण कार्य में सेवा प्रदान करती थीं। मंदिर के निर्माण हेतु लाल बलुआ पत्थर आगरा तथा संगमरमर जयपुर-जोधपुर से मंगवाया गया था। इस मंदिर को पूरा करने में 18 वर्ष लगे थे। मंदिर की प्रतिष्ठा विक्रमी सम्वत् 1831 तद्नुसार 1888 ईस्वी की नागपंचमी के दिन हुई थी। इसमें कृष्ण की काले रंग की संगमरमर की तथा राधा की पीतल की प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं। मंदिर का आंतरिक भाग जिसमें कि गर्भगृह व मण्डप शामिल है, पूरी तरह से भित्ति चित्रों के पैनलज़ से सुसज्जित है। इन भित्ति चित्रों के चित्रकार कौन थे, यह विवादास्पद विषय है। मंदिर के पुजारी के अनुसार सूबा राम और देवी चंद ने यह भित्ति चित्र, चित्रित किए थे। हालांकि कंवर राजबिंदर सिंह का कहना है कि उनके नाम मथुरा दास व देवी चंद थे। यह उल्लेखनीय है कि उन दोनों चित्रकारों के पते के बारे में समानता है कि वह गावं हरियाणा-भुंगा, जिला होश्यारपुर, पंजाब के निवासी थे और वह राजमिस्त्री होने के साथ-साथ चित्रकार भी थे। मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर निर्मित है जिसके चारों कोनो में अष्टकोणीय विस्तार है। इस मंदिर के गर्भगृह भाग का शिखर, त्रिरथ योजना में निर्मित है। इसकी गुम्बदाकार सीलींग चित्रों से सुसज्जित है। गर्भगृह की दीवारों में जालीदार खिड़कियां हैं। फर्श संगमरमर का है। गर्भगृह का द्वार चांदी से मढ़ा हुआ है और उस पर लेख भी अंकित है। गर्भगृह के दोनों ओर अष्टकोणीय लघु मंदिर है जिनकी गुम्बदाकार सीलींग है और ये बारीकी से चित्रित हैं। इसके मण्डप भाग पर तीन गुम्बद हैं जिनमें मध्य वाला, बाकी दोनों से बड़ा है। इसकी वैगन-वाॅलट सीलींग पूर्ण व समृद्ध रूप से चित्रित है। इस मंदिर का वास्तुशिल्प, शास्त्रीय व मुस्लिम वास्तुकला का मिश्रण है। यद्यपि पश्चिमोभिमुख इस मंदिर के विकृत शिखर पर शास्त्रीय मानकों का प्रभाव देखा जा सकता है तथापि मंडप के गुम्बदों पर स्पष्ट रूप से मुस्लिम  प्रभाव है। 

  शिव मंदिर, अम्मण , भोरंज, हमीरपुर यह मंदिर जिला हमीरपुर की भोरंज तहसील के गांव अम्मण में,  हमीरपुर से 16 किलोमीटर की दूरी पर डिडवीं-टिक्कर-ताल-कैहरवीं मोड़ सम्पर्क मार्ग के दायीं ओर स्थानीय टीले पर स्थित है। इसके लिए दूसरा रास्ता हमीरपुर-लम्बलू-जाहू सड़क पर कैहरवीं मोड़ से है। यह एक-कोशकीय मंदिर, जिसका आंतरिक माप 1.27 मीटर वर्गाकार है, त्रिरथ विन्यास का है। बाह्य रूप से इसका माप 2.20 x 2.65 मीटर है जिसमें इसका अभिमुख संकीर्ण अंतराल भी सम्मिलित है।  लघु अंतराल में विस्तारित स्पंदित पिंड है। इस मंदिर की वर्तमान ऊंचाई दहलीज स्तर से स्कन्ध तक 5 मीटर है। मंदिर पूर्वाभिमुख है। इसकी विशेषताओं से पता चलता है कि यह पुराने बिलासपुर के लुप्त प्राचीन षणमुखेश्वर मंदिर तथा औहर के खण्डहरों का समकालीन है इसलिए अनुमान लगाया गया कि यह सातवीं-आठवीं शताब्दी या इससे भी पूर्व का हो सकता है, बाद में जिसकी पुष्टि मंदिर के प्रांगण मे हुई खुदाई से प्राप्त इन्डो-सैसेनियन सिक्कों से हुई। हालांकि हमीरपुर से इतनी दूर एक आंतरिक स्थान पर, इस मंदिर के निर्माण के कारण की परिस्थितियों का पता लगाना तुरंत सम्भव नहीं हो पाएगा, लेकिन अवश्यमेव ही यह छोटे से नगर के समीप का प्रतिष्ठित पूजा स्थल रहा होगा। इस मंदिर के 3 किलोमीटर दक्षिण में ताल और महल के नाम के दो स्थानों से संकेत मिलता है कि इस स्थान के समीप एक छोटी रियासत की राजधानी रही होगी। महल में एक प्राचीन किले के खण्डहर भी ऐसी संभावना की पुष्टि करते हैं। 

जानकीनाथ मंदिर, जयसिंहपुर, जिला कांगड़ा जयसिंहपुर, कांगड़ा जिले के पालमपुर उपमण्डल की जयसिंहपुर तहसील का मुख्यालय है। पालमपुर से 50 किलोमीटर तथा धर्मशाला से 90 किलोमीटर दूर, यह कस्बा ब्यास नदी के दायें तट पर स्थित है। किंवदन्ती के अनुसार, यह मंदिर कांगड़ा के कटोच शासकों में से किसी एक ने अपनी बेटी की स्मृति में निर्मित करवाया था। बेटी का नाम जानकी था, अतः मंदिर का नाम जानकीनाथ रखा गया। पश्चिमोभिमुख, यह मंदिर बैजनाथ (कांगड़ा) के वैद्यनाथ मंदिर की प्रतिकृति के रूप में, अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में निर्मित है। हालांकि इसकी पार्श्व योजना, वैद्यनाथ मंदिर की हूबहू प्रतिकृति है परंतु वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह, उस शास्त्रीय मंदिर की एक लोकीय अपरिष्कृत प्रतिकृति है। इस मंदिर के सामने एक स्वतंत्र कक्ष, गरूड़ मण्डप है। वैद्यनाथ मदिंर के सामने स्थित नन्दी की भांति ही, इसके भीतर मंदिराभिमुख गरूड़ की प्रस्तर प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मुखमण्डप, बड़े वर्गाकार मण्डप, अंतराल तथा गर्भगृह सहित यह मंदिर शास्त्रीय मानकों के आधार पर निर्मित है। मंदिर का क्षेत्र, पत्थर की चिनाई से निर्मित एक ऊंची सीमा दीवार से निर्धारित है। गरूड़ मण्डप, जो कि सीढ़ीदार स्वरूप में लगे पत्थरों से आच्छादित छत, जो कि चार स्तम्भों पर टिकी है, चारों ओर से खुली एक संरचना है। इस मण्डप के मध्य, उद्यतगरूड़ की करबद्ध अराधनारत, श्याम रंग की एक प्रस्तर प्रतिमा है। इस प्रतिमा को आंशिक रूप से गेरू से रंगा गया है। मुखमण्डप, चारों स्तम्भों पर टिकी, जो कि सीढ़ीदार पत्थरों से आच्छादित है और जिसके उपर एक अपरिष्कृत आमलक स्थित है, एक अग्रभाग संरचना है। इसकी छत का स्वरूप बिल्कुल गरूड़ मण्डप के समान है। इसका वर्गाकार मण्डप, यथोचित बड़े आकार का है। इस मण्डप के फर्श में संगमरमर की टाइलें लगी हैं। फर्श के मध्य में, समदूरी पर स्थित चार विशालकाय प्रस्तर स्तम्भ हैं। इन स्तम्भों के मध्य में, दोनों ओर दो मंच निर्मित हैं। मंडप के उत्तर व दक्षिण की ओर दो प्रक्षेपित खिड़कियां हैं। इन दोनों खिड़कियों में शैल निर्मित जालियां लगी हैं। मण्डप की चारों दीवारों के बाहरी कोनों पर, लघु मीनारें हैं। मण्डप के विशालकाय प्रस्तर स्तम्भ व चारों दीवारें, अखण्ड शैल शहतीरों की ग्रिड को उठाए हुए हैं। इन शहतीरों के उपर एक, सीढ़ीदार चक्कों की छत और उसके उपर एक आमलक स्थापित है। अंतराल, मण्डप व गर्भगृह के मध्य एक क्षेत्र है। त्रिरथ गर्भगृह, जिसकी दायीं ओर की दीवार में एक कम गहरा आला है, एक बिल्कुल अंधेरा व सादा कक्ष है। गर्भगृह में बांयी ओर राम, सीता व लक्ष्मण की श्याम रंग की प्रस्तर प्रतिमाऐं प्रतिष्ठित हैं।त्रिरथ पार्श्व योजना में उठे हुए गर्भगृह, शिरोबिन्दु से शिखर निर्मित एक अधिरचना है। जिसके शिखर के उपर एक विशालकाय आमलक स्थापित है।