परिचय
इतिहासकारों के अनुसार ललित कलाएं मात्र चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला एवं छापने की विधि तक ही सीमित थी परन्तु आज के संदर्भ में ललित कला का रूप कुछ इससे विस्तृत हो गया है। कला में दिखने वाली कला के साथ-साथ निष्पादन कला, चित्रकला, मूर्तिकला, लेखन कला, संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तुकला, मूर्तिकला, लेखन कला विविध शैलियों को ललित कला से जोड़कर देखा जाता है।
हिमाचल की पारंपरिक हस्तकला की कलात्मकता
बारह जिलों की देवभूमि हिमाचल प्रदेश की झलकती गौरवमयी सौन्दर्य संस्कृति एवं परम्परागत जन-जीवन, बोलियों, भाषा, गीत-संगीत, वाद्यों व पहाड़ी परिवेश के संयोजित व श्रृंगारित प्रस्तुतिकरण की झलक में संचारित कलात्मकता जो यहां की ललित कला के विभिन्न आयामों में अभिव्यक्त होकर सृजनात्मकता की श्रेष्ठता का सौन्दर्य बोध पूरे विश्व को करवाती रही है वहीं यहाँ की हस्तकलाओं में सौन्दर्य की सर्वागींण अभिव्यक्ति समस्त विश्व को अपनी ओर आकर्षित करने पर विवश कर देती है। हिमाचल प्रदेश में प्रचलित निम्नलिखित लोक कलायें है:-
पहाड़ी लघु हस्त चित्रकला
परम्परागत पहाड़ी लघु चित्रकला एक रेखा प्रधान शैली है जिसमें चित्रकार द्वारा हस्तनिर्मित कागज, बारीक तुलिकाओं एवं प्राकृतिक रंगो का विषयानुगत प्रयोग करके विभिन्न शैलियों- गुलेर, काँगड़ा, नूरपुर , चम्बा, बसोहली, मण्डी, कुल्लू, सिक्ख, गढ़बाल आदि में संयोजित लघु चित्रों की रचना की जाती है। इन चित्रों के विषय मुख्यतः- बारहमासा, रागमाला, रामायण, बिहारी सतसई, गीत-गोविन्द, नायिका भेद, शिव-पार्वती, राजसी, पहाड़ी संस्कृति आदि पर आधारित है। 17वीं सदी के मध्य से 20वीं सदी के मध्य तक पहाड़ी शैलियां यहाँ के राजसी पोषण में फली-फूली थीं तथा आज 21वीं सदी में भी यह चित्रकला धरोहर गुरू-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत जिला काँगड़ा, चम्बा एवं शिमला में जीवन्त है।
पहाड़ी चित्रकला
मिनिएचर पेंटिग या लघु चित्रकला-मिनिएचर पेंटिंग या लघुचित्रकला के नाम से जानी जाने वाली चित्रकला की विशेषता बारीक कारीगरी है । चित्रकारों ने बड़े कैनवास का प्रयोग न करके छोटे चित्रों में महीन कारीगरी दिखलाई जिसमें एक-एक बाल को देखने के लिए लैंस की जरूरत पड़ती है। पहाड़ी कलम विश्वस्तर पर विख्यात हुई, उसे ‘कांगडा़ कलम’ के नाम से भी जाना जाता है। राज्य संग्रहालय में सुरक्षित महत्वपूर्ण कृति ‘देवी महात्म्य’के मिलने से पूर्व इस कला के उद्भव के विषय में कला समीक्षकों में मतभेद रहा । देवी महात्म्य’के चित्र उत्तर भारत के सोलहवीं शताब्दी के चित्रों से मेल खाते है। देवी महात्म्य के बाद कुल्लू से सत्रहवीं शताब्दी में अंतिम समय की ‘रागमाला श्रृंखला’ मिलती है। यहीं प्रसिद्ध चित्रकार पंडित सेउ मुसब्बर तथा उसके परिजन वंशज हुए, जिन्होंने पहाड़ी रियासतों में पहाड़ी कलम में कीर्तिमान स्थापित किए । काँगड़ा कलम में गुलेर की भूमिका के विषय में लेखक आर्चर ने कहा है: ‘‘18वीं शताब्दी में पहाड़ी कलम के विकास की दिशा में गुलेर राज्य ने निर्णायक की भूमिका अदा की । यहां न केवल अति कोमल और आकर्षक स्थानीय कला का विकास हुआ, बल्कि लगभग 1780 में गुलेर शैली का अंतिम स्वरुप काँगड़ा जिला में गया, जो अपने आप में काँगड़ा शैली बना । गुलेर शैली केवल पहाड़ी कलम के 38 छोटे केन्द्रों में से एक ही नहीं है, बल्कि यह पंजाब हिल्ज में सभी प्रमुख शैलियों की मूल जननी है।
चम्बा कलम /चित्रकला
चम्बा अपनी पहाड़ी चित्रशैली के लिए विश्व विख्यात है । बसोहली चित्रकला शैली ने कलाकार निक्कू की कलाकृतियों के साथ इसे पहाड़ी चित्रकला का नाम दिया जो कि बसोहली चित्रकला के कलाकार थे और 18वीं सदी में गुलेर से चम्बा में आकर बस गए । राजा उदय सिंह व जय सिंह दोनों ने इस पहाड़ी चित्रकला शैली को संरक्षण व बढ़ावा दिया । यह राजा चढ़त सिंह का समय था जब यह पारम्परिक चित्रकला पोषित हुई,उस समय स्थानीय कलाकारों पर इस कला का प्रभाव इस कदर हुआ जिसके फलस्वरूप आज यह कला अपनी अलग पहचान बनाये हुए है। चम्बा कला में वैसे तो लघु व भित्ति चित्रों पर बहुत कार्य हुआ है परन्तु इस शैली में मुगल शैली का प्रभाव भी देखने को मिलता है । उस समय के चित्रकारों में लेहरू, दुर्गा, मियां जारा सिंह का नाम स्वर्ण अक्षरों अंकित है। इनकी चित्रकला का विषयवस्तु पौराणिक आख्यान जैसे कृष्ण-लीला, शिव पार्वती, राम दरबार तथा प्रकृति में पशु-पक्षी एवं नदियां तालाब आदि समाविष्ट हैं । विभिन्न किस्म के रंगों की छट्टा, चित्रों के माध्यम से चम्बा, शिमला व धर्मशला के संग्रहालयों में देखी जा सकती है।
मण्डी कलम
मण्डी कलम चित्रशैली के रूप में एक लोककला है, जो रियासतकाल में राजाश्रय में फली-फूली पहाड़ी चित्र कला अपने चित्रण की बारीकियों के लिए मशहूर रही है। इसमें गणेश, सूर्य, पांडवों, दुर्गा, काली जैसे धार्मिक चरित्रों के अलावा सैनिक, यमराज, नारी आदि का भी चित्रण किया गया है। मण्डी कलम में प्राकृतिक रंगों का उपयोग होता रहा है। ये रंग मिट्टी, पत्थर, वनस्पति, फलों व धातु से तैयार किए जाते थे । उन्होंने चित्रकला के लिए कागज़ और रंगों को तैयार करने की विधि भी बताई । राजा जालिम सेन 1826 में सिहासन पर बैठा था । उसने जालपा और टारना मन्दिरों में भित्ति चित्र बनवाये थे। इन चित्रों पर खनिज, सोने, चाॅदी के रंगों का प्रयोग हुआ है । सन् 1886 ई. में मण्डी क्षेत्र में ब्रिटिश आधिपत्य आ जाने से मण्डी शैली पर बहुत प्रभाव पड़ा । कागज के स्थान पर केनवास का प्रयोग तथा खनिज रंगों के स्थान पर तेल रंगों का प्रयोग होने लगा था। चित्र में रेखाओं का महत्व कम होने लगा था । भित्ति चित्रों के आलावा अन्य चित्रों पर पाश्चात्य् शैली का प्रभाव अधिक पड़ा ।
गुलेर चित्रकला
18वीं शताब्दी के पूर्वाध में निचले हिमालय के एक छोटे से पहाड़ी राज्य गुलेर में इस महान कला की उत्पत्ति हुई, जब मुगल चित्रकला शैली में प्रशिक्षित कश्मीरी चित्रकारों के एक परिवार ने राजा दलीप सिंह (1695-1741) के दरबार में आश्रय मांगा । इसी काल को गुलेर कलम का प्रारम्भिक चरण माना जाता है। गुलेर शैली के लघु चित्रों का विशेष विषय भगवत्त गीता, गोविंद, बिहारी सतसई, बारामासा और रागमाला है।
कांगडा चित्रकला
भारतीय चित्रकला की गौरवमयी गाथा अंजता के भित्तिचित्रों से प्रारम्भ होती है और उसका अंतिम परन्तु महत्वपूर्ण पड़ाव संभवत: पहाड़ी कलम है। लगभग 1730 -1740 ई० में गुलेर राज्य में एक नवीन शैली का प्रादुर्भाव हुआ जो कि उतर मुगल कालीन चित्रशैली के गुणों का आत्मसात किये हुए थी और इसके प्रणेता थे चित्रकार पं० सेउ एवं उनके दो यशस्वी पुत्र “माणक” और “नैनसुख” । कांगड़ा कलम के महान संरक्षक महाराजा संसार चन्द कटोच के शासन काल (1776 -1824 ) में यह चित्रशैली अपने चरम पर पहुंची।
थांका चित्रकला
यह बौद्ध धर्म के अन्तर्गत परम्परागत चित्रण शैली है जो धार्मिक विषयों पर आधारित होती है इसमें चित्रकार अत्यन्त बारीक तुलिकाओं का एवं प्राकृतिक रंगो का प्रयोग कपड़े पर चित्र बनाने के लिये करता है। परंपरागत रूप से, थांका पेंटिंग न केवल सौंदर्य के लिए मूल्यवान हैं, बल्कि मुख्य रूप से ध्यान संबंधी प्रथाओं में सहायक के रूप में उनके उपयोग के लिए हैं। एक विशेष देवता के स्पष्ट दृश्य को विकसित करने, उनकी एकाग्रता को मजबूत करने, और अपने और देवता के बीच एक कड़ी बनाने के लिए अभ्यासकर्ता थंगकास का उपयोग करते हैं। ऐतिहासिक रूप से, थांका का उपयोग विभिन्न विद्वानों के जीवन को व्यक्त करने के लिए शिक्षण उपकरण के रूप में भी किया जाता था। एक शिक्षक या लामा अपनी कहानियों को चित्रित करने के लिए बड़े थानका स्क्रॉल के साथ ढोते हुए धर्म पर बातचीत करते हुए यात्रा करते। थांका पेंटिंग की पवित्र कला 7 वीं शताब्दी की है। नेपाल में उत्पन्न, यह चित्रकला कई स्कूलों में विकसित हुई ,जिसमें जीवन के कई पहलुओं को रंगो के माध्यम से चित्रित किया गया है। थांका चित्रों में दिखाए गए देवता आमतौर पर उन दर्शनों के चित्रण होते हैं जो बोध के क्षणों में महान आध्यात्मिक गुरुओं को दिखाई देते थे, जिन्हें तब दर्ज किया गया था और बौद्ध धर्मग्रंथ में शामिल किया गया था। बौद्ध देवताओं का सटीक प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि आध्यात्मिक दर्शन की दृश्य अभिव्यक्ति भी होती है जो एक दृष्टि के समय हुई थी। थांका चित्रकला का इतिहास अत्यन्त प्राचीन रहा है जो अजन्ता एवं ताबो मोनास्ट्री के भिती चित्रों की परम्परा से होता हुआ कपड़े पर चित्रित रूप लिये विकसित हुआ इसके केन्द्र काँगड़ा, मण्डी, कुल्लू-मनाली, शिमला, लाहौल-स्पिति, लेह-लद्धाख आदि है।
काष्ठ हस्तकला
लकड़ी पर की जाने वाली उत्कीर्णता काष्ठ नक्काशी कहलाती है । भारत में हिमाचल उन क्षेत्रों में से एक हैं जहाँ लकड़ी ने एक रचनात्मक सामग्री के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिमाचल प्रदेश में चील , सेडरस देवदार , अखरोट, घोडा, शहतूत और जंगली काला शहतूत बहुतायत में पाए जाते हैं। काष्ठशिल्प के लिए प्रसिद्ध स्थान चम्बा, तीसा, कल्पा, किन्नौर और कुल्लू हैं। गाँव के घरों का निर्माण दरवाजों, खिड़कियों, बालकनी पैनलों आदि पर नक्काशी के साथ किया जाता है। हिमाचल प्रदेश चमत्कार और मोह का एक अटूट स्रोत है। सदियों से ग्रामीण कारीगरों द्वारा निर्मित बड़ी संख्या में कलाकृतियों द्वारा इसका आश्चर्य और रहस्य गहराया जाता है। कलाकृतियों ने गांवों में प्राचीन कलात्मक और सांस्कृतिक परंपराओं को बनाए रखने में मदद की है। इस काष्ठशैली में बड़े व लघु मन्दिर, देवी-देवताओं के प्रतीकरूपों का काष्ठ उत्कीर्ण, घर, भवन, महल एवं इनके दरवाजे व झालर, खिड़कियां, काष्ठ पैनल, मुखौटे, सन्दूकड़ी आदि नक्काशी युक्त बनाये जाते है। यह हस्तकला जिला चम्बा, कुल्लू , शिमला के रोहड़ू व चिड़गाँव तथा किन्नौर के क्षेत्रों में देखने को मिलती है।
दस्तकारी हस्तकला
पहाड़ी घरों की आन्तरिक साजसज्जा एवं कमरों में ठण्डी सतह पर बिछौने हेतु ऊनी धागों से हस्तनिर्मित गलीचे, दरियां, कालीन आदि का प्रयोग किया जाता है। यह कला किन्नौर, लाहौल-स्पिति तथा कुल्लू में देखने को मिलती है।
धातु हस्तशिल्प
पीतल, तांबा, सोना, चाँदी आदि धातुओं का चयन करके हस्तनिर्मित मूर्तियों, धातु उत्कीर्णित थाल, वाद्य यन्त्रों तथा मोहरें जो कि देवी-देवताओं के स्वरूप में ढाली गयी आकृतियां या छवि युक्त होती है जिनको भेंट स्वरूप भी दिया जाता है।
बांस से निर्मित हस्तकला
काँगड़ा में बांस की अधिकता होने के कारण काष्ठ के स्थान पर बांस से मनमोहक हस्तनिर्मित शिल्पों का सृजन किया जाता है। बांस की महीन खप्पचियों को छील कर उनमें विषयवस्तु की बुनावट शैली को जोड़कर हस्तशिल्प बनाया जाता है, जिनमें कारीगर द्वारा लैम्प, पैंन स्टेंड, समुद्री जहाज, बोट, विविध ऐतिहासिक भवन, धार्मिक मंदिर, झूले, पक्षी युगल, सारस, चरखा, दुल्हे की पालकी एवं दुल्हन की डोली, तोप इत्यादि के सुन्दर कलात्मक काष्ठ युक्त लघु रुपों में तैयार किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक शैली में किल्टा, डल, छड़ोलू, चंगेर, पेड़ू, पिटारी आदि बनाने की परम्परा भी जीवन्त है। यह हस्तकला जिला काँगड़ा, हमीरपुर, बिलासपुर, मण्डी, कुल्लू में कायम है।
मृण हस्तकला
मृण हस्तकला में मिट्टी को परम्परागत विधान में गूंथकर कई रुपों को रचा जाता है फिर इन आकृतियों को भटटी में पकाया जाता है। पक्की मिटटी की कला में दीये , मटके, लघु मन्दिर, मूर्तियां एवं बर्तन बनाये जाते हैं। यह कला ऊना व काँगड़ा में जीवन्त है।
ऊनी हस्तकला
ऊनी हस्तकलायें मुख्यतः जिला किन्नौर, कुल्लू , रामपुर, शिमला, सिरमौर, मण्डी, लाहौल-स्पिति, काँगड़ा, चम्बा में देखने को मिलती है। ऊनी हस्तकला से शॉल, टोपियां, कम्बल, दोहडू, दस्ताने, मफलर या गुलबंद, सदरी तथा जुराबे इत्यादि बनाई जाती है।
परम्परागत कढ़ाई हस्तकला
जिला चम्बा में महिलाओं द्वारा रुमाल पर किसी रेखांकित चित्र को रंगीन रेशमी धागों से दो तरफा कढ़ाई से तैयार किया जाता है जिसमें तैयार रुमाल दोनों ओर से एक जैसा प्रतीत होता है। यह मुख्यतः राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती, पहाड़ी संस्कृति पर आधारित होते है। इसी विधान से हत्थपंखी, सिरहाने के आवरण एवं चादरों पर भी सुन्दर कढ़ाई की जाती है।